महिला सशक्तीकरण(Women Empowerment in Hindi)
भारतीय समाज में नारी को सम्मान का स्थान प्राप्त है। उसे देवी की संज्ञा दी जाती है। एवं दुर्गा, लक्ष्मी के रूप में पूजा जाता है। अगर सच में ऐसा है तो देह व्यापार, घरेलु हिंसा, जैसे मामले महिलाओं के खिलाफ ही क्यों अधिकतम हैं। ऋग्वैदिक काल में महिलाओं को ऊँचा स्थान था उनका जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ बराबर का अधिकार था उसे पुरुष के सामान सभी अधिकार प्राप्त थे। गार्गी और मैत्रेयी उस युग की ऐसी नारियां हैं। जिन्होंने प्रतिभा के बल पर ऋषियों का स्थान प्राप्त किया। किन्तु समय के साथ मनुष्य महिलाओं के अधिकारों को छीनता चला गया।
किन्तु ऋग्वैदिक काल पर भी संदेह ही नजर आता है। क्यों कि इस काल में अगर इतनी ही अच्छाइयां थीं। तो पुरुषों के समान इस काल की सिर्फ दो नारियों के विषय में ही अधिकांशः क्यों सुना या पड़ा जाता है।
महिलाओं पर लिखने वाली प्रसिद्ध लेखिका जेर्मेन ग्रीर का मानना है।” पुरुष अगर आज बदला हुआ नजर आता है तो इसलिए नहीं कि ‘फेमिनिस्ट’ नारीवादी सोच की और मुड़ रहा है बल्कि आर्थिक दबावों के कारण वह उदार नजर आ रहा है।”
स्त्री का संघर्ष किसी भी मायने में पुरुष के खिलाफ संघर्ष नहीं है, बल्कि उसके साथ बराबर के व्यक्ति के तौर पर संबंध बनाने का प्रयास है। स्त्री के तमाम संघर्ष पुरुष के खिलाफ न होकर उन तमाम स्थितियों के खिलाफ है जो उसे कभी शक्ति संपन्न होने नहीं देते।
महिलाओं के अधिकार की बात की तो जाती है किन्तु आज तक कितनी ही महिला प्रधान मंत्री हुई हैं, या राष्ट्रपति या सीईओ, कुछ महिलाओं के दम पर ही हम महिला सशक्तीकरण(Women Empowerment in Hindi) की बात करने लगते हैं। किन्तु अगर संख्याओं में तुलना करें तो दुनिया में 1% से भी कम महिलाएं होंगी जो वाकई महिला अधिकारों के लिए उदहारण हो।
एक कहावत है ‘जो व्यक्ति गुड़ देने से मर सकता हो उसे जहर क्यों देना‘ कहने का तात्पर्य है कि जब किसी व्यक्ति को मीठी बातों या प्रलोभन से नष्ट किया जा सकता हो तो उससे लड़ाई लड़कर क्या फायदा। यहाँ इस कहावत को महिलाओं के परिपेक्ष में कहा गया है। कई बार स्त्रियों को दिए गए तमाम अधिकार और शक्ति समाज के वर्त्तमान ढांचे में उसे मीठी बातें करके खुस करने के अलावा और कुछ नहीं प्रतीत होते हैं।
स्त्री देवी है और उस देवी की पवित्रता तभी तक है जब तक उसकी दुनियाँ मंदिर रूपी पुरुष के दायरे में है, एवं स्त्री द्वारा उस दायरे से बाहर जाना उसके लिए कलंक हो जाता है।
इतिहास में अहिल्या, तारा, द्रौपदी आदि विवेकशील स्त्रियां रही हैं किन्तु धर्म ग्रंथों और वेद पुराणों ने उनकी जिस पहचान को सराहा और महिमामंडल किया वह था, उनका पातिव्रत्य और उनकी दैहिक पवित्रता। कभी उनके विचार, वैज्ञानिक चिंतन, उनकी राय के विषय में महिमामंडल क्यों नहीं किया गया। बल्कि उन्हें बलिदान की मूर्ति के रूप में प्रदर्शित किया जाता है जिसके केंद्र में होता है पति।
ऐसे कई महान विचारक हैं जिनको दुनियाँ सुनती लिखती पड़ती हैं। किन्तु महिलाओं के लिए उनकी मानसिकता में खुलापन नहीं झलकता। सुकरात यह मानते थे कि ” नारी सभी बुराइयों की मूल है, उसका प्यार पुरुषों की घृणा से अधिक भयावह है।” ‘मनु’ के अनुसार “स्त्री के लिए पति सेवा ही गुरुकुल में वास और गृहकार्य अग्निहोम है।”
महिलाएं खुद के लिए कितनी जिम्मेदार
कोई स्थिति हजार सालों से चली आ रही हो। इतने लम्बे समय में अगर किसी भी स्थिति को मन और विचारों के स्तर पर ही बदल दिया जाये?
ऐसा करने के लिए परंपरागत संरचना से होकर गुजरना होता है जिसके लिए परिवार और समाज भी बराबर के जिम्मेदार हैं। किसी महिला के पति को परमेश्वर का दर्जा दे दिया जाता है। आखिर किसी महिला का पति, परमेश्वर(भगवान) कैसे हो सकता है? किसी महिला और पुरुष के बराबरी के सिद्धांत को तो परमेश्वर बना कर ही तोड़ दिया जाता। यह तुलना किसी भी महिला द्वारा उसके गैर बराबरी के किसी भी रिश्ते में की जा सकती है।
आजादी के बाद महिलाओं को मुख्यधारा में जोड़ने के लिए संविधान में अनेक प्रावधान किये गए हैं। किन्तु विडंबना यह है कि व्यावहारिक रूप में इन प्रावधानों की स्वीकार्यता न के बराबर ही है। महिला अधिकारों की वकालत दो स्तरों पर की जाती है। एक उसके देह के स्तर पर जिसका सम्बन्ध उसकी निजी पसंद और नापसंद को लेकर है एवं दूसरा सामूहिक अधिकारों के स्तर पर। जिस बात पर बहस सबसे ज्यादा है वह है स्त्री का अपने शरीर पर अधिकार, उसका शरीर उसके पति की जागीर नहीं है बल्कि इस पर सबसे पहला अधिकार स्वयं उस स्त्री का ही है।
सामूहिक अधिकारों के तहत नारीवाद ने पैतृक संपत्ति में लड़कियों की समान भागीदारी, उत्पीड़क वैवाहिक संबंधों से अलग होने के लिए तलाक का अधिकार, स्त्रियों के सम्मानजनक रोजगार, समान काम के लिए पुरुषों के समान वेतन और समाज तथा राजनीति के स्तर पर निर्णयों में समान भागीदारी के मुद्दे उठायें हैं। परन्तु सिद्धांत और विचार के स्तर पर जिन स्त्री अधिकारों को स्थापित करने में सफलता मिली है, उन्हें परिवार के स्तर पर अभी आमतौर पर व्यावहारिक रूप नहीं दिया जा सका है। समानता और स्वतंत्रता के सुन्दर शब्द गढ़ने में दक्ष संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रशासन तंत्र में भी स्त्रियों की भागीदारी सिर्फ 15% ही है, दुनियाँ के संपन्न देशों के विधानमंडलों में उन्हें अभी तक सिर्फ 10% जगह ही मिल पायी है।
अमेरिका जैसे देश में भी महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार होती है। एक अनुमान अनुसार भारत में हर 20 वीं औरत अपने जीवन की किसी न किसी अवस्था में आत्महत्या का प्रयास करती है।
” तुम हो तो ये घर लगता है
वरना इसमें डर लगता है।”
इन वाक्यों की गहराई को कब तक व्यवहार में अपनाया जायेगा इस बात का कोई अनुमान नहीं है। शब्दों की दुनियाँ से वास्तविक दुनियाँ इतनी आसान नहीं है, पर मुख्य बात यह है कि इस सफर में सहज मनुष्य/ सहज समाज/ सहज परिवार की तलाश का प्रश्न बहुत बड़ा है। स्त्री को “स्त्री” बनाकर रखना कब बंद होगा। सिमोन द बुआर स्त्री के विषय में कहती हैं “स्त्री पैदा नहीं होती बनायीं जाती है।”
महिला सशक्तीकरण के प्रयास पिछले चार दसकों से किये जा रहे हैं। जिससे महिला साक्षरता में वृद्धि हुई है। और वह अपने अधियकरों को जान रही हैं। इसमें सबसे अधिक प्रभाव शहरी एवं उच्चा वर्ग की महिलाओं में देखा जाता है। जबकि निम्न वर्ग एवं गांव की महिलाएं अभी भी संघर्षरत हैं।
नारी खुद को धीरे धीरे जान रही है। अपनी शक्ति और गुणों को पहचान रही है, शिक्षा के महत्व को पहचान रही है। फिर भी वह अपने अनुसार खुद को प्रतिष्ठित करने के लिए संघर्षशील रही है। इसलिए विरोध-अवरोध, तिरष्कार-बहिष्कार को नकारते हुए उसे आगे आना होगा। तभी वह समाज और राष्ट्र के प्रति अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकती है और साथ ही अपनी सार्थकता भी सिद्ध कर सकती है। महिला सशक्तीकरण(women empowerment in hindi) की लड़ाई को खुद महिलाओं द्वारा ही लड़ना होगा। नारी की लड़ाई पुरुष के विरुद्ध नहीं है बल्कि पुरुष प्रधान समाज के नारी विरोधी मूल्यों के प्रति है।