समान नागरिक संहिता(Uniform Civil Code in Hindi), यह एक ऐसा विषय है जिस पर समय समय पर बहस होती रहती है। किन्तु इस विषय पर कोई अंतिम निर्णय उपाय के रूप में नहीं लिया जा सका। आजादी के बाद डॉ अम्बेडकर के द्वारा समान नागरिक संहिता को लाने का प्रयास किया गया। उनकी इच्छा थी कि देश के गरीब, पिछड़े एवं महिलाओं को न्याय का समान अवसर मिले। जो किसी जाति, धर्म, से ऊपर हो। किन्तु इस पर मतभेदों को खत्म नहीं किया सका।
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समान नागरिक संहिता(Uniform Civil Code in Hindi) क्या है?
भारत में आपराधिक क्षेत्र में सभी नागरिकों के लिए एक समान विधि का निर्माण किया गया है, परन्तु विवाह, संपत्ति, परिवार, उत्तराधिकार के संबंध में अलग अलग धर्मावलंबियों के लिए पृथक पृथक विधि का निर्माण किया गया है। हिन्दू धर्म के अनुयायियों के लिए विवाह और उत्तराधिकार के अलग विधियां हैं, जो सिख धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए समान रूप से लागू होती है। ईसाईयों के लिए विवाह और उत्तराधिकार के लिए अलग नियम लागू होते हैं, मुसलमानों के लिए विवाह और उत्तराधिकार के लिए अपने नियम हैं।
इन अलग अलग विधियों को समाप्त करके सभी भारतीय नागरिकों के लिए एक समान विधि होनी चाहिए, जिसमें विवाह, उत्तराधिकार एवं तलाक के प्रावधान नियंत्रित हो। संविधान सभा में समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर सहमति के अभाव के कारण इसे संविधान के भाग-4 के आर्टिकल-44 में शामिल किया गया है।
समान नागरिक संहिता के विकास की प्रक्रिया।
भारत में न्याय को समावेशी बनाने के लिए निरंतर प्रयास किये गए हैं। अगर इसे चरणों में बाँट कर देखे तो प्राचीन भारत में वेद और स्मृति के आधार पर न्याय किया जाता था। स्मृति में मनुस्मृति एवं याज्ञवल्क्य स्मृति कानून की मुख्य पुस्तकों के रूप में थी।
मध्यकाल में मुगलों के द्वारा कानून को नियमबद्ध करने का प्रयास किया गया। मुस्लिम शरीयत कानून के अनुसार चलते हैं। औरंगजेब के द्वारा फतवा-ए-आलमगिरी पुस्तक की रचना की गयी। जिसमें विस्तृत रूप से कानूनों का उल्लेख किया गया है। आपराधिक(क्रिमिनल) मामलों का निपटारा शरीयत के अनुसार किया जाता था। जबकि दीवानी(सिविल) मामलों में के लिए कोई निश्चित कानून नहीं थे। ऐसे मामलों का निपटारा काजी और मुफ़्ती की सलाह पर किया जाता था।
आधुनिक काल में अंग्रेजी शासन के समय सिविल कानूनों से जुड़े कुछ बड़े फैसले लिए गए। जैसे वारेन हेस्टिंग के द्वारा 1773 में उच्चतम न्यायालय को स्थापित किया गया। 1829 में राजा राम मोहन राय के द्वारा विलियम बेंटिक के सहयोग से सति प्रथा उन्मूलन कानून को लाया गया। 1833 के चार्टर एक्ट से, 1834 में लार्ड मैकाले के द्वारा 1st Low Commission का निर्माण किया गया। 1856 लार्ड डलहौजी के द्वारा पुनर्विवाह अधिनियम लाया गया। 1859-61 CPC , IPC , CrPC कानून लाये गए। 1873 में सर हेनरी मैन के द्वारा स्पेशल मैरिज एक्ट लाया गया जो आजादी के बाद 1954 का मैरिज एक्ट बना।
इन सब के बावजूद मुस्लिम और हिन्दू सिविल कानूनों को हमेशा अलग रखा गया। आजादी के बाद भी आपराधिक कानून तो सभी के लिए समान रहे किन्तु सिविल कानून एकसमान नहीं हो सके। हिन्दू कोड बिल के माध्यम से हिन्दू समाज में महिलाओं के अधिकार को बल मिला। जो महिलाओं के अधिकार को लेकर हिन्दू समाज के लिए बहुत बड़ा बदलाव था। जिस पर बहुत बवाल हुआ। इसमें सीधा प्रश्न यह था कि, हिन्दू धर्म के लिए ही बदलाव क्यों?
वहीँ मुस्लिम समाज अपने जड़त्व के कारण आज भी महिला अधिकारों को लेकर बहुत पीछे हैं। जिसमें राजनीतिक इच्छा शक्ति भी जिम्मेदार है। डॉ अम्बेडकर और पंडित नेहरू का यह वह सपना है जिसे आज तक पूरा नहीं किया जा सका।
समान नागरिक संहिता(Uniform Civil Code in Hindi) पर न्यायपालिका का निर्णय
शाहबानों केस समान नागरिक संहिता से जुड़ा हुआ प्रसिद्ध मामला है। इस केस में शाहबानों नामक मुस्लिम महिला को उसके पति के द्वारा तलाक दे दिया गया था। परिणाम स्वरुप शाहबानों ने मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में अपने पति से गुजारा भत्ता देने के लिए याचिका दायर की। पति के अनुसार मुस्लिम पर्सनल कानून के अनुसार पति को गुजारा भत्ता देने का प्रावधान नहीं है, परन्तु आपराधिक प्रक्रिया संहिता में महिलाओं को गुजारा प्राप्त करने का अधिकार है।
मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने शाहबानो के पति को शाहबानों को गुजारा भत्ता देने का निर्देश दिया। न्यायायल के अनुसार आपराधिक प्रक्रिया, संहिता पर्सनल कानून से ज्यादा महत्वपूर्ण है और यह मामला महिला के अधिकार से सम्बंधित है, जिसे धर्म से जोड़कर देखना सही नहीं होगा। अपील में उच्चतम न्यायालय ने मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के निर्णय को वैधानिक माना।
उच्चतम न्यायालय ने शाहबानों वाद, 1986 में सरकार को यह स्पष्ट निर्देश दिया था कि भारत में एक समान नागरिक संहिता का होना आवश्यक है, परन्तु उच्चतम न्यायालय का निर्णय लागू नहीं हो सका क्यों कि, राजीव गाँधी सरकार के द्वारा आपराधिक प्रक्रिया संहिता में संशोधन कर दिया गया, जिसके अनुसार, मुस्लिम महिलाएं तलाक के बाद अपने पति से गुजारा भत्ता की मांग नहीं कर सकती।
आलोचकों के अनुसार यह तुष्टिकरण की निति है। उच्चतम न्यायालय ने हाल के निर्णय में यह भी कहा कि, विवाह का मामला अंतःकरण की स्वतंत्रता से बिलकुल सम्बंधित नहीं है। इसलिए इसको नियंत्रित किया जा सकता है। और उच्चतम न्यायालय ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि दूसरे विवाह के लिए धर्मान्तरण करना असंवैधानिक है। और न्यायपालिका के अनुसार यह धार्मिक विषय पर आधारित नहीं है, बल्कि महिलाओं के उत्थान से जुड़ा हुआ विषय है।
उच्चतम न्यायालय के हाल के निर्णय में यह कहा जा चुका है। कि बहु पत्नी प्रथा और तीन बार तलाक कहने का प्रावधान इस्लाम धर्म का मूल भाग नहीं है बल्कि यह महिलाओं से जुड़ा हुआ एक सामाजिक मुद्दा है।
समान नागरिक संहिता(Uniform Civil Code in Hindi) के पक्ष में तर्क
- पंथनिरपेक्ष देश में सभी नागरिकों के लिए एक समान विधियां होनी चाहिए और विधि के निर्माण में धर्म के बजाय, सामाजिक एवं आर्थिक हितों का महत्व देना चाहिए। विवाह और उत्तराधिकार एक सामाजिक मुद्दा है, धार्मिक नहीं। हिन्दू धर्मावलंबियों के द्वारा अनेक सामाजिक सुधार किये गए हैं, जिनपर धार्मिक संगठनों के द्वारा आपत्ति व्यक्त की गयी थी। जैसे सती प्रथा को समाप्त करने के विरोध में अनेक संगठनों ने आंदोलन किया था।
- भारत के गोवा राज्य में समान नागरिक संहिता लागू है। और समान नागरिक संहिता, राष्ट्र की एकता एवं अखंडता के लिए आवश्यक है।
- दुनिया के अनेक ऐसे देश हैं, जहाँ इस्लाम धर्म को मानने वालों की बहुलता है, उन्होंने भी एक समान नागरिक संहिता अपना रखी है। तुर्की, मिस्र एवं पाकिस्तान जैसे देशों में एक से ज्यादा विवाह करना प्रतिबंधित है।
- विभिन्न नागरिक विधियों के कारण इसका दुरुपयोग होता है तथा सामाजिक सुधार की राह में समस्याएं उत्पन्न होती हैं। अन्य धर्मावलंबियों के द्वारा दो विवाह करने के लिए इस्लाम धर्म अपनाया जाता है।
समान नागरिक संहिता(Uniform Civil Code in Hindi)के विपक्ष में तर्क
- भारत, विश्व का सर्वाधिक विविधतापूर्ण समाज है, जहाँ सभी लोगों के लिए एक समान विधि का निर्माण संभव नहीं है। एकता का अभिप्राय, सभी लोगों के लिए एक समान विधि का निर्माण करना नहीं है, बल्कि विविधिता में एकता स्थापित करना है।
- भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों में विवाह एवं उत्तराधिकार के बिल्कुल अलग नियम है, जो इनकी परम्पराओं पर आधारित है। और इन्हे समाप्त करना संभव नहीं है। उत्तर पूर्वी राज्यों के लिए संविधान के छठी(6) अनुसूची के द्वारा जनजातियों के लिए विशेष प्रावधान किया गया है।
- समूचे देश में इसे लागू करने के लिए विभिन्न राज्यों का समर्थन भी आवश्यक है। विवाह, उत्तराधिकार जैसे विषय समवर्ती सूची सम्मिलित है, इसलिए राज्यों का सहयोग भी आवश्यक है।
समान नागरिक संहिता(Uniform Civil Code in Hindi) का विचार निर्विवाद रूप में बेहतर विकल्प है परन्तु इसके निर्माण से पहले विभिन्न समुदायों के प्रतिनिधियों के साथ संवाद करने की आवश्यकता है, और इसे क्रमिक रूप में लागू करने का प्रयत्न किया जाये और सबकी सहमति का ध्यान रखा जाये।