प्रदुषण की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। नेट जीरो कार्बन उत्सर्जन(Net Zero Carbon Emissions) इन्ही समस्याओं का एक निदान है। देश दुनिया पर क्लाइमेट चेंज से जुडी चिंताएं भी अब साफ दिखाई देने लगी हैं। जिसका असर दुनिया पर समान रूप से पड़ेगा। ग्लोबल वार्मिंग से सबसे अधिक समस्या समुद्रतटीय देशों को होगी और उनमें भी खासकर वह देश जो बहुत से द्वीपों के भाग हैं। अगर धरती का तापमान बढ़ता है तो भारत के भी ऐसे कई क्षेत्र हैं जो पानी में समां सकते हैं।
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नेट जीरो उत्सर्जन क्या है(Net Zero Carbon Emissions)?
नेट जीरो उत्सर्जन से तात्पर्य कार्बन उत्सर्जन को पूरी तरह बंद करने से नहीं है बल्कि इसका तात्पर्य एक ऐसी स्थिति से है जिसमें किसी देश के ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को वायुमंडल से अवशोषित कर लिया जाये या हटा दिया जाये।
नेट जीरो उत्सर्जन को ही कार्बन न्यूट्रैलिटी (Carbon Neutrality) के नाम से जाना जाता है।
नेट जीरो उत्सर्जन को प्राप्त करने के लिए कार्बन सिंकिंग की प्रक्रिया को अपनाया जाता है। इसके लिए वनों को लगाया जाता है। ताकि पेड़ों द्वारा कार्बन का अवशोषण किया जा सके। तथा अन्य हानिकारक गैसों के उत्सर्जन को हटाने के लिए यांत्रिकी विधियों द्वारा कार्बन कैप्चर और भण्डारण किया जाता है।
कार्बन-नेगेटिव क्या है?
किसी देश द्वारा किया गया कार्बन उत्सर्जन उसके द्वारा किये गए कार्बन अवशोषण से कम रहता हो तो इस स्थिति को कार्बन- नेगेटिव कहा जाता है। उदहारण के लिए- किसी देश की कार्बन उत्सर्जन संख्या 5 है। तथा उसके कार्बन अवशोषण की दर 10 है तो यह स्थिति कार्बन-नेगेटिव कहलाएगी।
भूटान देश की स्थिति कार्बन-नेगेटिव की है।
अभी की स्थिति के अनुसार कार्बन न्यूट्रैलिटी (Carbon Neutrality) को लेकर विकसित देशों का मानना है कि 2050 तक वैश्विक कार्बन न्यूट्रैलिटी पेरिस समझौते को प्राप्त करने का एकमात्र तरीका है।
कार्बन न्यूट्रैलिटी पर भारत का पक्ष
कार्बन न्यूट्रैलिटी के विषय पर भारत विरोध में एकमात्र देश दिखाई पड़ता है। 2015 के पेरिस क्लाइमेट चेंज समझौते को लेकर भारत का कहना है कि इसमें नेट जीरो को लेकर को कोई भी रूपरेखा नहीं है। हालाँकि भारत पेरिस क्लाइमेट चेंज में रखे गए लक्ष्यों की ओर तेज़ी से कदम बड़ा रहा है।
जानकारों का मानना है कि अगले 2 से 3 दसकों में भारत का उत्सर्जन दुनिया में सबसे तेज़ गति से बढ़ाने की संभावना है। इसका कारण भारत की उच्च विकास सम्भावनएं हैं। अगर इस समस्या के निदान के लिए वनीकरण को भी अपनाया जाता है तब भी उत्सर्जन की भरपाई करना संभव नहीं है।
कार्बन हटाने वाली नवीनतम तकनीकों का प्रयोग कर पाना सभी के लिए संभव नहीं है। ये तकनीकें विकासशील देशों के लिए बेहद महँगी हैं। किन्तु अन्य नए उपायों को खोजते हुए सभी देशों को पेरिस क्लाइमेट चेंज के नियमों को मानना चाहिए। साथ ही भारत यह भी कहता है कि विकसित देश अभी तक पहले से चल रहे लक्ष्यों को पूरा करने ने खरे साबित नहीं हुए हैं जैसे- क्योटो प्रोटोकॉल, पेरिस क्लाइमेट चेंज से अमेरिका का बहार निकलना।
कार्बन न्यूट्रैलिटी के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए विकसित देशों के द्वारा जो तकनिकी हस्तांतरण की बात कही गयी थी उस पर भी वह खरे शाबित नहीं हुए हैं।
भारत का साफ तोर पर कहना है कि भारत इससे सम्बंधित समस्याओं को नहीं नकारता किन्तु पहले के समझौतों की पूर्ति भी होनी चाहिए।
क्योटो प्रोटोकाल क्या है?
क्योटो प्रोटोकॉल को 11 Dec 1997 को अपनाया गया तथा 16 Feb 2005 से यह लागू हुआ। इसका उद्देश्य ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना है । क्योटो प्रोटोकॉल UNFCCC(United Nations Framework Convention on Climate Change) के उद्देश्यों की पूर्ति करता है। क्योटो प्रोटोकॉल विकसित देशों के लिए बाध्यकारी हैं किन्तु विकासशील देशों को इसमें छूट दी गयी है। इसके लिए एक वाक्य का प्रयोग किया जाता है ” साझी जिम्मेदारियां किन्तु अलग अलग तरीके से”।
पेरिस क्लाइमेट चेंज क्या है?
इसे Dec 2015 को पेरिस में Conference of the Parties (COP) 21 में अपनाया गया तथा 4 Nov 2016 को लागू कर दिया गया। इसका उद्देश्य – इस सदी के अंत तक ग्लोबल वार्मिंग को पूर्व औद्योगिक समय की तुलना में 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना।
यह कानूनी रूप से बाध्यकारी अंतराष्ट्रीय संधि है
नेट ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन(Net Zero Carbon Emissions) को लेकर जो सबसे बड़ी चुनौती है वह विकासशील देशों के सामने हैं। क्यों कि विकसित देश पहले ही एक लम्बे समय में अपनी देश की जरूरतों और चुनौतियों से निकल चुके हैं। लेकिन विकासशील देश अभी भी गरीबी, आधुनिक पिछड़ेपन और खाद्य समस्यायों से जूझ रहे हैं। अब अगर पेरिस क्लाइमेट चेंज और क्योटो प्रोटोकॉल जैसे लक्ष्यों को पूरा करने के लिए पाबंदियां लगायी जाएँगी तो वह तो कभी गरीबी और पिछड़ेपन से बहार आ ही नहीं पाएंगे। हालाँकि विकासशील देश ये नहीं चाहते कि वो इन लक्ष्यों की पूर्ति में भाग न लें। उनका मानना है कि उन्हें विकसित देशों के मुकाबले अधिक समय दिया जाये। विकसित देशों के द्वारा तकनिकी सहयोग दिया जाये। इसके लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन की आवश्यकता होगी।