केशवनंद भारती वाद(Keshavanand Bharati judgement): संविधान की आधारभूत संरचना

केशवानंद भारती वाद(Keshavanand Bharati judgement) भारतीय न्यायिक प्रक्रिया में महत्वपूर्ण वादों (judgement) में से एक है। इस जजमेंट की वजह से भारत एकपक्षीय शासन(totalitarian regime) व्यवस्था में जाने से बच गया।

1973 में Keshavanand bharati and Others VS State of Kerala Case का निर्णय आया। जिसमें केशवानंद भारती मुख्य याचिकाकर्ता थे। 80 साल की उम्र में इनकी मृत्यु हो गयी। केशवानंद भारती Edneer Mutt(इडनीर मठ) में मुख्य पुजारी थे। यह मठ केरला के कासरगोड डिस्ट्रिक्ट में पड़ता है।

Keshavanand Bharati judgement में मुद्दा

Edneer Mutt में केशवानंद भारती की जमीन थी किन्तु केरला सरकार ने एक ACT बनाया Land Reform Amendment Act-1963 . इस एक्ट के अनुसार सरकार मठ से संबंधित जो भूमि है उस पर अधिग्रहण कर सकती थी। इसके विरोध में केशवानंद भारती सुप्रीम कोर्ट पहुंचे Section-32 के तहत, जिसमें 5 आर्टिकल्स का हवाला दिया गया।

Article 25: अंतःकरण  की स्वतंत्रता और धर्म को मानने, आचरण करने व प्रचार करने की स्वतंत्रता।

Article 26: धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता।

Article 14: विधि के समक्ष समता तथा विधियों का समान संरक्षण।

Article 19(1)(f): संपत्ति का अधिकार (अब मूल अधिकार का हिस्सा नहीं है)।

Article 31: संपत्ति का अनिवार्य अर्जन।

इस केस के लिए सुप्रीम कोर्ट में 13 जजों की बेंच बैठी। इससे बड़ी बेंच आज तक नहीं बैठी है। इस बेंच ने केशवानंद भारती केस(Keshavanand Bharati judgement)) को और भी अधिक विस्तृत कर दिया। इस केस के साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने गोलखनाथ केस की व्याख्या, आर्टिकल 368 की व्याख्या, संविधान संशोधन 24 की जाँच, संविधान संशोधन 25 के सेक्शन 2 और 3 की जाँच, संविधान संशोधन 29 को भी शामिल कर लिया गया।

जिसके निर्णय में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा आधारभूत संरचना(basic structure) की संकल्पना को शामिल किया गया ।

Keshavanand Bharati judgement की पूरी प्रक्रिया

संविधान के भाग 4 में आर्टिकल 36 से 51 तक नीति निदेशक तत्वों को शामिल किया गया है। जिन्हे आयरलैंड के संविधान से लिया गया है।

नीतिनिदेशक तत्वों के आर्टिकल 38 में कहा गया है कि राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा एवं आर्टिकल 39(b) में कहा गया है कि समाज में भौतिक संसाधनों का स्वामित्व एक ही हाथों में न रहे, समाज में भौतिक स्वामित्व इस प्रकार से हो कि समाज में असमानतायें कम हो सकें।

आजादी से पहले अंग्रेज़ों ने भूमि से लगान के लिए अलग अलग नियम अपनाये। इस प्रक्रिया में जमीदारों के पास बहुत अधिक भूमि हो गयी थी। उस समय समाज में असमानतायें बहुत अधिक हो गयी थी। स्थिति ऐसी थी कि किसी जमींदार के पास 1000 एकड़ जमीन है तो किसी किसान के पास कोई जमीन नहीं।

किन्तु आजादी के बाद निति निदेशक तत्वों में आर्टिकल 38 और 39(b) के हिसाब से सरकार की यह जिम्मेदारी थी कि वह असमानताओं को कम करे। इस लिए सरकार Land reform के लिए जमींदारी उन्मूलन कानून 1950 लेकर आयी।

जिसके विरोध में जमींदार कोर्ट चले जाते हैं उस समय आर्टिकल 19 और 31 के हिसाब से संपत्ति का अधिकार एक मूल अधिकार था। जिसके आधार पर दलील दी गयी कि सरकार ऐसा कोई भी कानून नहीं बना सकती जो मूल अधिकारों का हनन करता हो। कोर्ट ने इस कानून पर रोक लगा दी।

तो इसके लिहाज से अब सरकार ने 1951 में देश का पहला संविधान संशोधन कर दिया। इस संशोधन में दो मुख्य कार्य किये गए पहला अनुसूची 9 को संविधान में जोड़ा गया जिसे कोर्ट की न्यायिक प्रक्रिया से बहार रखा गया। एवं दूसरा कार्य, आर्टिकल 31(b) को जोड़ा गया।

आर्टिकल 31(b) में यह कहा गया कि जो एक्ट अनुसूची 9 में डाला गया है अगर वह कानून मूल अधिकारों का हनन भी करता है तब भी न्यायपालिका उसे ख़त्म नहीं कर सकती। अर्थात कोर्ट से पॉवर को ख़त्म कर दिया गया कि वह अनुसूची 9 की जाँच नहीं कर सकती।

इस बदलाव के बाद सरकार फिर से लैंड रिफार्म के कार्य में लग गयी और जमीदारों से भूमि को वापस लिया जाने लगा। किन्तु इसबार संविधान संशोधन 1 को ही उच्चतम न्यायालय में चुनौती दे दी गयी। उस समय इस प्रकार के दो केस और सामने आये जिसमें 1st है Sankari Prasad Singh VS Union of India-1952 और 2nd है Sajjan singh VS State of Rajasthan-1955 . इन दोनों ही केस में मांग की गयी कि संविधान संशोधन 1 को अमान्य घोसित कर दिया जाये।

किन्तु उच्चतम न्यायालय के द्वारा फैसला दिया गया कि संविधान संशोधन करके फंडामेंटल राइट्स भी छीने जा सकते हैं। यह ऐसा जजमेंट था जैसे पार्लियामेंट के सामने सुप्रीम कोर्ट झुक गयी हो।

किन्तु जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद सुप्रीम कोर्ट शक्तिशाली होने लगता है।

फिर 1967 में Golakanath VS Punjab सरकार के मध्य विवाद हुआ। गोलखनाथ दो भाइयों की जमीन पर पंजाब सरकार ने पंजाब सिक्योरिटी एंड लैंड टेन्योर एक्ट के हिसाब से 500 एकड़ की जमीन में से 480 एकड़ पर कब्ज़ा कर लिया और केवल 20 एकड़ दोनों भाइयों को दे दी। तो इसके बाद यह मुद्दा उच्चतम न्यायालय में पहुँचता है। इसमें सरकार के द्वारा तर्क दिया गया कि जो कानून है वह अनुसूची 9 का भाग है। जिसकी न्यायालय के द्वारा समीक्षा नहीं की जा सकती।

किन्तु सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा कहा गया कि आर्टिकल 368 के हिसाब से भी संविधान को इस प्रकार से संशोधित नहीं किया जा सकता कि मूल अधिकार(fundamental rights) को खत्म किया जा सके। यह निर्णय 1952 और 1955 के केस से एकदम इतर निर्णय था।

इसके बाद इंदिरा गाँधी के समय में सर्वोच्च न्यायालय और पार्लियामेंट के बीच मतभेद सामने आते हैं। इंदिरा गाँधी के द्वारा पार्लियामेंट की शक्ति को बढ़ाने पर जोर था इसलिए पार्लियामेंट के द्वारा संविधान संशोधन 24,25,26 और 29 को कर दिया।

जिसमें संविधान संशोधन 25 के हिसाब से आर्टिकल 31A को बदला गया। इसमें कहा गया कि यदि सरकार कोई जमीन अधिग्रहित करती है तो व्यक्ति को इस जमीन का नुकसान भरपाई अगर कम राशि में भी दिया जाता है तो भी व्यक्ति कोर्ट के सामने जाकर मूल अधिकारों के हनन कि दुहाई नहीं दे सकता।

एवं संविधान संशोधन 25 के हिसाब से ही दूसरा बदलाव यह हुआ कि एक नया आर्टिकल 31C को जोड़ दिया गया इसमें कहा गया कि यदि सरकार DPSP(नीति निदेशक तत्व) को लागू करने के लिए कोई कानून लाती है तो उस कानून की मूल अधिकारों के हनन की बात करते हुए समीक्षा नहीं की जा सकती।

संविधान संशोधन 29 में केरल के दो लैंड रिफार्म सम्बंधित कानूनों को अनुसूची 9 में दाल दिया गया।

कहने का भाव यह है कि सरकार की तरफ से पूरा प्रयास किया गया कि 1967 गोलकनाथ वाद(संविधान संशोधन करके भी मूल अधिकारों को नहीं छीना जा सकता) में जो निर्णय आया था उस निर्णय को निरस्त किया जा सके।

केरल राज्य (केशवानंद भारती केस)

1972 में केरल में एक मठ था उस मठ की 500 एकड़ जमीन को सरकार के द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया। तो केशवानंद सुप्रीमकोर्ट चले जाते हैं और वहाँ मूल अधिकारों के उल्लंघन का मामला उठाया। इस मामले पर सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा 1973 में जजमेंट दी गयी और इसी जजमेंट से आधारभूत संरचना की बात निकल कर सामने आती है।

इस केस में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा कहा गया की संसद के पास पूरी आजादी है संविधान में बदलाव करने की लेकिन संविधान की आधारभूत संरचना(Basic structure) का हनन नहीं होना चाहिए। और सुप्रीम कोर्ट ही यह तय करेगा कि संविधान की आधारभूत संरचना में क्या आता है और क्या नहीं?

इस केस में जो चीफ जस्टिस थे चीफ जस्टिस सीकरी, उनके द्वारा बेसिक स्ट्रक्चर की विशेषताएं बताई गई।

केशवानंद भारती केस(Keshavanand Bharati judgement) के द्वारा पार्लिमेंट की पावर को बैलेंस करने का प्रयास किया गया। कई लोग मानते हैं कि संसद के पास सभी शक्तियां होनी चाहिए। किन्तु यह तर्क कमजोर है, अगर किसी पार्टी की सरकार प्रचण्ड बहुमत से दोनों सदनों में है तो वह तो संविधान को किसी भी तरह से बदल सकती है। तो यह लोकतंत्र के लिए सही नहीं हो सकता। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय संविधान का रक्षक है।

 

 

 

 

 

 

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