Judiciary of India(भारत की न्यायपालिका)

भारतीय न्यायपालिका की वर्तमान स्थिति(Judiciary of India in present time)

भारतीय न्यायपालिका के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती न्याय की पारंपरिक धारणा, “विलंबित न्याय, न्याय न मिलने के बराबर है”, को प्रवृत्त होने से रोकने की है। न्यायपालिका में लंबित मामलों का हिसाब रखने वाली ‘राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड’ (NJDG) के अनुसार, वर्तमान में भारत के जिला एवं तालुका न्यायालयों में 4 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं व उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या 59 लाख से अधिक है (27 दिसंबर, 2022 की स्थिति के अनुसार)। ऐसी स्थिति में न्याय पाने के लिये आमजन को वर्षोंतक संघर्ष करना पड़ता है और न्याय मिलने में होने वाली इसी देरी से न्यायपालिका में व्यापक सुधारों की मांग प्रबल होती है। मामलों के निपटान में विलंब होने का सबसे बड़ा कारण भारतीय न्यायपालिका के हर स्तर पर भारी संख्या में रिक्तियाँ होना है।

संघीय विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा दी गई 1 नवंबर, 2022 तक की जानकारी के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के 34 स्वीकृत पदों में से 6 व सभी उच्च न्यायालयों में कुल स्वीकृत 1108 पदों में से 335 पद रिक्त हैं। उल्लेखनीय है कि भारतीय न्यायपालिका एकीकृत संरचना पर आधारित है, जिसके अंतर्गत किसी न्यायालय द्वारा दिये गए किसी भी निर्णय पर समीक्षा याचिका उच्चतर न्यायालय में दायर की जा सकती है सर्वोच्च न्यायालय के संदर्भ में भी यही स्थिति है, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए किसी निर्णय पर समीक्षा याचिका भी दायर की जा सकती है। इसलिये उच्चतर न्यायपालिका में इतनी बड़ी संख्या में पद रिक्त होने के कारण वादियों को अंतिम रूप से न्याय मिल पाने में देरी होती है।

चुनौतियाँ

प्रतिनिधित्व की असमानता भारतीय न्यायपालिका के समक्ष मौजूद एक और बड़ी  है। सर्वोच्च न्यायालय में वर्तमान में कार्यरत 28 न्यायाधीशों में से केवल 2 महिलाएँ हैं। अन्य कारणों के साथ यह बात इसलिये भी चिंताजनक है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय में देश की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व महज़ 7% है। प्रतिनिधित्व की स्थिति उच्च न्यायालयों में भी कमोबेश ऐसी ही है। जनसंख्या के इतने बड़े वर्ग का न्याय करनेकी प्रक्रिया से दूर होने से न्यायिक निर्णय देने में एक संतुलित दृष्टि का अभाव हमेशा बना रहता है, इस अभाव की कोटि का अंदाजा तब तक लगा पाना मुश्किल है, जब तक प्रतिनिधित्व के स्तर पर लैंगिक संतुलन सुनिश्चित न हो जाए।

हालांकि, लैंगिक असंतुलन प्रतिनिधित्व की समस्या का केवल एक पक्ष है, उच्चतर न्यायपालिका में अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, दिव्यांगों व अन्य वंचित वर्गों के प्रतिनिधित्व की स्थिति भी बेहद खराब है। न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व की अनादर्श स्थिति के कारण उच्चतर न्यायपालिका में नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी ध्यान जाता है। ध्यातव्य है कि सर्वोच्च्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम व्यवस्था द्वारा की जाती है, जिसका उद्विकास पिछली शताब्दी के अनेक प्रमुख न्यायिक निर्णयों के आधार पर हुआ है। चूँकि कॉलेजियम के सदस्य न्यायाधीश ही होते हैं और न्यायाधीशों द्वारा ही न्यायाधीशों की नियुक्ति होने से इस प्रक्रिया में अपारदर्शिता व मनमानेपन की समस्याएँ देखी जाती हैं। इसके अतिरिक्त कॉलेजियम पर भाई भतीजावाद को बढ़ावा देने व पक्षपाती होने के आरोप लगते हैं।

इसके अलावा, वे किसी भी प्रशासनिक निकाय के प्रति जवाबदेह नहीं हैं जो सही उम्मीदवार की अनदेखी करते हुए गलत उम्मीदवार के चयन का कारण बन सकता है। 2018-19 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में व्यापार सुगमता बढ़ाने में सबसे बड़ी बाधा संविदाओं का प्रवर्तन व विवादों का निपटान तीव्र गति से न हो पाना है, और यह बाधा भारतीय न्यायालयों में करोड़ों की संख्या में मामले लंबित होने से उपजती है। दरअसल भारतीय न्याय प्रणाली हमारे निरंतर विकसित व विविध होते जा रहे समाज व अर्थव्यवस्था की गति से सामंजस्य बिठाने में असमर्थ नजर आती है। इसके अतिरिक्त मेट्रो शहरों व राज्य की राजधानियों को छोड़ दिया जाए तो देश के अधिकांश अधीनस्थ न्यायालय मूलभूत अवसंरचना की कमी से ग्रसित हैं। साथ ही, न्यायिक प्रक्रिया का जटिल व खर्चीला होना निर्धन तथा वंचितों को न्याय से दूर ले जाता है।

न्यायपालिका के समक्ष उपर्युक्त चुनौतियों के फलस्वरूप विचाराधीन कैदियों की समस्या उत्पन्न होती है। भारतीय जेलों में बंद अधिकांश कैदी वे हैं जो अपने मामलों में निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं (यानी वे विचाराधीन कैदी हैं) और उन्हें निर्णयन तक की अवधि के लिये बंद रखा जाता है। अधिकांश आरोपियों को जेल में लंबी सजा काटनी पड़ती है (उनके दोषी सिद्ध होने पर दी जा सकने वाली सज़ा अवधि से अधिक समय के लिये) और न्यायालय में स्वयं का बचाव करने से संबद्ध लागत, मानसिक कष्ट और पीड़ा वास्तविक दंड काटने की तुलना में अधिक महँगी और पीड़ादायी सिद्ध होती है।

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