किसी भी देश की मुद्रास्फीति(Inflation kya hai) का सीधा संबंध देश में व्याप्त महंगायी से लगाया जाता है एवं किसी भी देश की सरकार और केंद्रीय बैंक के लिए यह किसी चुनौती से कम नहीं है और खासकर भारत जैसी तेज़ी से विकसित होती अर्थव्यवस्था के लिए यह चुनौती और भी बड़ी हो जाती है। क्यों कि महंगाई का सबसे अधिक असर गरीब और निम्न मध्यम वर्ग पर पड़ता है।
Table of Contents
मुद्रास्फीति क्या है?(Inflation kya hai)
मुद्रास्फीति से अभिप्राय दीर्घकाल में सामान्य कीमत स्तर में वृद्धि की स्थिति से है। जब कीमतों के सामान्य स्तर में लगातार वृद्धि होने लगाती है तो वह मुद्रास्फीति की अवस्था कहलाती है।
और सरल भाषा में कहें तो मुद्रा के मूल्य या उसकी क्रय शक्ति का कमजोर होना मुद्रास्फीति है। जैसे कोई व्यक्ति 100 रूपये खर्च करके 5 kg आलू खरीदता है किन्तु महंगाई बढ़ने से अब वह 100 रूपये में 2 kg आलू ही खरीद पाता है।
मुद्रास्फीति के कारण आयत कीमतों में वृद्धि होती है, जिस कारण निवेश की लागत में भी वृद्धि होती है।, यह स्थिति देश की विकास प्रक्रिया के लिए बाधा बनती है।
मांग और पूर्ति के आधार पर मुद्रास्फीति
जब अर्थव्यवस्था में वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्ति की अपेक्षा मांग अधिक है तो कीमते सतत रूप से बढ़ती हैं और मुद्रा का मूल्य घट जाता है। जिसे मुद्रास्फीति कहते हैं। मुद्रास्फीति व्यापार चक्र का भाग है।
वस्तु की मांग में लगातार वृद्धि + वस्तु की आपूर्ति में लगातार कमी = वस्तु की कीमतों में लगातार वृद्धि = मुद्रास्फीति
मुद्रास्फीति से सम्बंधित अन्य शब्दावलियाँ
मुद्रा अवस्फीति(Deflation)
इस स्थिति में अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति तो अधिक होती हैं किन्तु उसकी मांग कम हो जाती है। जिसकी वजह से कीमतें घटती हैं। और मुद्रा के संकुचन की स्थिति पैदा होती है। इसी प्रक्रिया को मुद्रा संकुचन या मुद्रा अवस्फीति कहते हैं। किन्तु मूल्य में होने वाली हर गिरावट को मुद्रा संकुचन नहीं कहा जायेगा। यह मुद्रास्फीति के ठीक बीच विपरीत होती है। इसमें मुद्रास्फीति की दर शून्य से निचे अथवा नकारात्मक हो जाती है। मुद्रा अवस्फीति में कीमतें तो गिरती है, किन्तु मुद्रा का मूल्य और उत्पादन लगातार बढ़ाता रहता है।
मुद्रा अपस्थिति(Disinflation)
इस स्थिति में मुद्रा पर नियंत्रण किया जाता है। जिससे कीमतों को घटाकर धीरे धीरे साधारण स्तर तक लाने का प्रयास किया जाता है। ऐसा करने से मुद्रास्फीति की दर कम तो होती है किन्तु सकारात्मक बनी रहती है। यह सरकार के मौद्रिक और राजकोषीय उपायों का भाग होता है। यह अवस्फीति की तरह अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक नहीं समझी जाती है।
मुद्रा संस्फीति (Reflation)
इसके तहत बहुत नीचे गिरी हुई कीमतों को धीरे धीरे ऊपर उठाने का कार्य किया जाता है। जिसके तहत करों में कटौती, व्याज दरों में कमी आदि प्रयासों के जरिये अर्थव्यवस्था में मुद्रा की आपूर्ति को बढ़ाया जाता है। यह एक प्रकार से मुद्रा अवस्फीति पर नियंत्रण लगाने की प्रक्रिया है।
मुद्रा संस्फीति सरकार द्वारा जान बूझकर लायी जाती है। क्यों कि ऐसा करने से अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी की समस्या कम होती है एवं वस्तुओं और सेवाओं की मांग में वृद्धि होती है। जिससे अर्थव्यवस्था में आर्थिक गतिविधियों और आर्थिक समृद्धि को बढ़ावा मिलता है।
Skewflation
जब अर्थव्यवस्था में एक साथ मुद्रास्फीति और मुद्रा संकुचन की स्थिति हो तो उसे Skewflation कहते हैं। इसमें मूल्य वृद्धि का सम्बन्ध किसी विशेष वस्तु या वस्तुओं के छोटे समूह में हुई मूल्य वृद्धि से है। इस स्थिति में कुछ क्षेत्रों में तो ऊँची मुद्रास्फीति(कीमतों में वृद्धि) की दर देखी जाती है तो वहीँ दूसरे कुछ क्षेत्रों में मुद्रा संकुचन(कीमतों का गिरावट) की स्थिति एकसाथ प्रदर्शित होती है।
मंदीगत मुद्रास्फीति या निस्पंदन (Stagflation)
जब अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी और महंगाई दोनों स्थितियां साथ साथ दिखाई दें। यही स्थिति मंदीगत मुद्रास्फीति कहलाती है। मंदीगत मुद्रास्फीति में मुद्रास्फीति की दर(महंगाई की दर) ऊँची, आर्थिक समृद्धि की दर नीची रहती है इसके साथ ही बेरोजगारी की दर ऊँची रहती है। इस स्थिति से निपटना एक कठिन कार्य होता है। क्यों कि बेरोजगारी को दूर करने के लिए सरकार की तरह से जहाँ मांग में वृद्धि हेतु विस्तारवादी राजकोषीय उपाय किये जाते हैं वहीँ उच्च महंगाई को काबू करने के लिए संकुचन कारी नीतियां अपनायी जाती हैं।
मुद्रास्फीति के प्रकार
रेंगती हुई मुद्रास्फीति(Creeping Inflation)
जब मुद्रास्फीति की दर 3 प्रतिशत या उससे कम होती है। तो उसे रेंगती हुई मुद्रास्फीति कहते हैं। यह मुद्रास्फीति का अत्यंत मंद रूप है। सामान्यतः यह स्थिति विकसित देशों में होती है। अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास के लिहाज से इस प्रकार की मुद्रास्फीति को सही समझा जाता है।
चलती हुई मुद्रास्फीति (Walking Inflation)
जब मुद्रास्फीति की दर मंद मुद्रास्फीति की दर से अधिक अर्थात 3-10 प्रतिशत के बीच होती है तो इसे चलती हुई मुद्रास्फीति कहते हैं। चलती हुई मुद्रास्फीति की मंद गति भारत जैसे विकासशील देशों के लिए अच्छी मानी जाती है। किन्तु चलती हुई मुद्रास्फीति को दौड़ती हुई मुद्रास्फीति(Running Inflation) अथवा कूदती हुई मुद्रास्फीति के खतरे के रूप में देखा जाता है।
दौड़ती हुई मुद्रास्फीति (Running Inflation)
बढ़ती हुई कीमतों की दर को दौड़ती हुई मुद्रास्फीति कहा जाता है। जब मुद्रास्फीति की दर 10-20% के बीच होती है तो उसे दौड़ती हुई मुद्रास्फीति कहते हैं। इस स्थिति में सरकार द्वारा मजबूत मौद्रिक एवं राजकोषीय नियंत्रण उपाय किये जाते हैं।
कूदती हुई मुद्रास्फीति (Gallaping/Over Inflation)
जब वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें द्विअंकीय(Double digit) या त्रिअंकीया(Tripple digit) वृद्धि दर से बढ़ती है। कहने का तात्पर्य है कि जब उत्पादन में बिना किसी वृद्धि के कीमतों में बहुत तेज़ी से वृद्धि हो और मुद्रास्फीति की यह स्थिति 20 प्रतिशत से अधिक हो जाये तो इसे कूदती हुई मुद्रास्फीति कहतें हैं।
अतिमुद्रास्फीति (Hyperinflation)
जब मुद्रास्फीति की दर 3 अंकों से भी अधिक हो जाये तो उसे अतिमुद्रास्फीति कहते हैं इस स्थिति में स्थिर आय वाली सभी परिसंपत्तियां, वेतन,बचत, बीमा पॉलिसी, बॉन्ड आदि का वास्तविक मूल्य कम हो जाता है। इस प्रकार की मुद्रास्फीति को 1920 के दशक में जर्मनी में तथा 2000 के दशक में जिम्बाब्बे में देखा गया। उसके बाद यही स्थिति 2016-17 के दौरान वेनेजुएला में देखने को मिली।
कोर स्फीति(Core Inflation)
इसकी अवधारणा 1981 में Eckstein ने दी थी। इसके अनुसार मुद्रास्फीति मापन के दो भाग होते हैं
- स्थायी मुद्रास्फीति : जब जनसँख्या वृद्धि, अद्योगीकरण, नगरीकरण आदि स्थायी कारणों के फलस्वरूप मांग बढ़ाने से मुद्रास्फीति बढ़ती है।
- अस्थायी मुद्रास्फीति : जब मानसून का वितरण अच्छा न होने और प्राकृतिक आपदा आने जैसे अस्थायी कारणों से उत्पादन में कमी के कारण मुद्रास्फीति बढ़ती है।
RBI गैर खाद्य विनिर्मित वस्तुओं से सम्बंधित स्फीति को कोर स्फीति के रूप में लेता है। कोर स्फीति में खाद्य एवं ईंधन की कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव को सम्मिलित नहीं किया जाता।
हैडलाइन मुद्रास्फीति(Headline Inflation)
थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर समग्र मुद्रास्फीति के मासिक आधार पर जारी किये जाने वाले आंकड़े को हैडलाइन मुद्रास्फीति कहते हैं। इसमें खाद्य पदार्थ एवं ईंधन सहित सभबी वस्तुओं को शामिल किया जाता है।
आयातित मुद्रास्फीति(Imported Inflation)
जब विदेशों से आयातित कच्छे उत्पाद की कीमतों में वृद्धि के कारण मुद्रास्फीति फैलती है। तो उसे आयातित मुद्रास्फीति कहते हैं। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों के कारण देश में जो मुद्रास्फीति फैली है वह इसी प्रकार की है।
छिपी हुई मुद्रास्फीति(Hidden Inflation)
किसी उत्पाद की पहले की कीमत पर या कीमत में कमी के बावजूद पहले की तुलना में उस उत्पाद की गुणवत्ता या मात्रा में कमी को छिपी हुई मुद्रास्फीति कहते हैं। अर्थात पूर्ववत कीमतों पर ही, लेकिन पहले की अपेक्षा कम वजन, आकार एवं ख़राब गुणवत्ता वाला माल बेचा जाना छिपी मुद्रास्फीति है।
संरचनात्मक मुद्रास्फीति(Structural Inflation)
अधिक लचीली मौद्रिक नीतियों के तहत यदि कोई देश अधिक मात्रा में मुद्रा जारी करता है या व्याजदरों को दीर्घ अवधि तक कम रखता है तो इस कारण मुद्रा की प्रत्येक इकाई का मूल्य बड़ी हुई मांग की तुलना में गिर जाता है, इसी अवस्था को संरचनात्मक मुद्रास्फीति कहते हैं। इस प्रकार की मुद्रास्फीति केवल आपूर्ति और मांग के आधिक्य के कारण नहीं होती बल्कि अर्थव्यवस्था में सरकार की मौद्रिक नीतियों के कारण भी बनी रहती हैं।
मुद्रास्फीति के कारण
मांग प्रेरित मुद्रास्फीति(Demand-Pull Inflation)
जब अर्थव्यवस्था में साधन लागत एक समान रहती है, किन्तु वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्ति की अपेक्षा उसकी मांग अधिक हो जाती है तो उसे मांग प्रेरित मुद्रास्फीति कहते हैं। मांग प्रेरित मुद्रास्फीति निम्न कारणों से आ सकती है। जैसे- लोगों की आय बढ़ने, सरकारी व्यय में तीव्र वृद्धि, बैंकों द्वारा अधिक मात्रा में कर्ज देने, जनसँख्या वृद्धि एवं नगरीकरण आदि कारणों से मांग बढ़ने से ।
लागतजन्य मुद्रास्फीति(Cost-Push Inflation)
यदि उत्पाद लगत में वृद्धि के कारण कीमतें बढ़ने लगाती हैं तो उसे लागतजन्य मुद्रास्फीति कहते हैं। यह प्राकृतिक कारणों जैसे- बाढ़, सूखा या मानवीय कारणों, जैसे हड़ताल, तालाबंदी के कारण भी हो सकती है। मध्यवर्ती वस्तुओं पर अत्यधिक क्र, परोक्ष कर में वृद्धि, स्टील, सीमेंट, कोयला एवं विद्युत इत्यादि के मूल्य में वृद्धि उत्पादन लगत में वृद्धि करते हैं।
वैश्विक कारणों से मुद्रास्फीति(Inflation by Global Causes)
वैश्वीकरण के कारण एक देश की आर्थिक क्रियाओं का असर अन्य देशों पर भी पड़ता है। तेल संकट या पेट्रोल के अंतरास्ट्रीय मूल्य में वृद्धि से मुद्रास्फीति में वृद्धि होती है। किसी देश में मंदी की स्थिति में उसका निर्यात घटने से उसके साझेदार देश में आयतों में प्रत्यक्षतः कमी आती है, जिससे मुद्रास्फीति में वृद्धि होती है।
मुद्रास्फीति के सूचक
मुद्रास्फीति के तीन मानक सूचक हैं।
- थोक मूल्य सूचकांक
- उपभोक्ता मूल्य सूचकांक
- जीडीपी अपस्फीतिकारक
थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index-WPI)
यह वस्तु के थोक मूल्य को प्रदर्शित करता है। भारत में थोक मूल्य सूचकांक का संकलन वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार कार्यालय द्वारा मासिक स्तर पर होता है।
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक(Consumer Price Index-CPI)
भारत में WPI के अलावा उपभोक्ताओं के स्तर पर लोगों के द्वारा प्रतिदिन उपयोग में लाये जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में होने वाली वृद्धि अर्थात मुद्रास्फीति की गणना की जाती है। अभी CPI को मुख्यतः 3 प्रकार से बांटा गया है।
- CPI-U , इसमें शहरी क्षेत्रों में कीमतों में होने वाले उतर चढ़ाव को दिखाया जाता है।
- CPI-R , इसमें ग्रामीण क्षेत्रों में कीमतों में होने वाले उतार चढ़ाव को दिखाया जाता है।
- CPI-(R+U), यह सूचकांक ग्रामीण और शहरी दोनों ही सूचकांकों का संयुक्त सूचकांक है। यह सूचकांक CSO के द्वारा प्रकाशित किया जाता है।
जीडीपी अपस्फीतिकारक(GDP Deflator)
यह मुद्रास्फीति मापने का सबसे सही तरीका है, क्यों कि इसमें किसी अर्थव्यवस्था के किसी वर्ष में उत्पादित सभी वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में परिवर्तन को लिया जाता है। जब सकल घरेलू उत्पाद की गणना बाजार कीमतों अर्थात प्रचलित मूल्यों पर की जाती है तो इसे बाजार कीमत पर सकल घरेलू उत्पाद(मौद्रिक जीडीपी) कहते हैं और जब सकल घरेलू उत्पाद की गणना आधार वर्ष के मूल्यों पर की जाती है तो इसे स्थिर मूल्यों पर जीडीपी(वास्तविक जीडीपी) कहते हैं।
मौद्रिक जीडीपी में वृद्धि और वास्तविक जीडीपी की वृद्धि के अंतर ही जीडीपी की कीमत में वृद्धि है और इसे ही जीडीपी डिफ्लेटर कहते हैं। यह चालू मूल्यों पर सकल घरेलू उत्पाद तथा स्थिर मूल्यों पर सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात है।
यदि जीडीपी का मान 1 है तो इसका मतलब, कीमत स्तर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।
अन्य सूचक(Other Indicarors)
खाद्य मुद्रास्फीति(Food Inflation)
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक या सामान्य मुद्रास्फीति के सापेक्ष में अनिवार्य खाद्य पदार्थों के थोक मूल्य सूचकांक में जारी बढ़ोत्तरी को खाद्य मुद्रास्फीति के रूप में जाना जाता है।
आवास मूल्य सूचकांक(Housing Price Index)
2007 से राष्ट्रीय आवास बैंक-रेजीडेक्स (NHB-Residex) इस सूचकांक को जारी कर रहा है। यह सूचकांक विभिन्न शहरों में एवं विभिन्न समयों में आवासीय परिसम्पत्तियों की कीमतों में होने वाले उतार चढ़ाव को प्रदर्शित करता है।
उत्पादक मूल्य सूचकांक(Producer Price Index)
यह उत्पादक मूल्य सूचकांक वस्तुओं और सेवाओं के घरेलू उत्पादकों द्वारा एक समयावधि में प्राप्त विक्रय मूल्यों में औसत परिवर्तन की माप प्रस्तुत करता है। यह सूचकांक उत्पादन के दृष्टिकोण से मूल्य में बदलाव को मापता है इस सूचकांक को मापते समय उत्पादन के तीन क्षेत्रों पर ध्यान रखा जाता है- तैयार वस्तुएं, मध्यवर्ती वस्तुएं तथा कच्चा माल।
मुद्रास्फीति की गणना
भारत में थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर मुद्रास्फीति की गणना वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार कार्यालय एवं उपभोक्ता मूल्य सूचकांक- ग्रामीण, शहरी व् संयुक्त की गणना केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय, सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा की जाती है। भारतमे मुद्रास्फीति की गणना थोक मूल्य सूचकांक एवं उपभोक्ता मूल्य सूचकांक दोनों के आधार पर की जाती है।
मुद्रास्फीति की गणना के लिए एक मुद्रा सूचकांक बनाया जाता है, जो थोक मूल्य सूचकांक(WPI) एवं उपभोक्ता मूल्य सूचकांक(CPI) के रूप में होता है मूल्य सूचकांक के लिए सर्वप्रथम एक आधार वर्ष बनाया जाता है। इस आधार वर्ष का सूचकांक हमेशा 100 माना जाता है।
मुद्रास्फीति की सीमा
मुद्रास्फीति को लेकर कई व्याख्याएं होती रही हैं। जैसे- चक्रवर्ती समिति(1985) द्वारा 4% मुद्रास्फीति दर को स्वीकार किया गया। तारापोर समिति द्वारा वर्ष 1997-2000 तक 3-5 प्रतिशत मुद्रास्फीति को स्वीकार किया गया जबकि सरकार ने 4-6 प्रतिशत मुद्रास्फीति को स्वीकार किया।
2003 के बाद से सरकार के द्वारा महंगाई दर को 5 प्रतिशत तक सीमित रखने की सामान्य नीति को कायम किया अर्थात 4-5% महंगाई को अर्थव्यवस्था के लिए सही समझा गया।
किन्तु 2015 से मुद्रास्फीति को लक्षित करने की नीति अपनायी जा रही। इसके तहत उपभोक्ता मूल्य सूचकांक(संयुक्त) को ही हैडलाइन मुद्रास्फीति माना गया है। इस नीति के अनुसार उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (संयुक्त) [CPI(C)] की वार्षिक सीमा 2-6% के बीच मानी गयी है।
फिलिप्स वक्र(Philips Curve)
न्यूजीलैंड के प्रमुख अर्थशास्त्री A.W.Phillips के द्वारा फिलिप्स वक्र का प्रतिपादन किया गया। फिलिप्स वक्र के द्वारा बेरोजगारी की दर, मौद्रिक मजदूरी में वृद्धि दर तथा मुद्रास्फीति की दर में सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। इसके अनुसार मुद्रास्फीति की दर तथा बेरोजगारी की दर में व्युत्क्रमानुपाती सम्बन्ध होता है।
इसके अनुसार यदि बेरोजगारी की दर को कम करना है तो उसके लिए अर्थव्यवस्था में मौद्रिक मजदूरी को बढ़ाना होगा किन्तु मौद्रिक मजदूरी को बढ़ने से अर्थव्यवस्था में तरलता बढ़ जाएगी, जिससे मुद्रास्फीति बढ़ेगी। अतः अगर बेरोजगारी समाप्त करना चाहते हैं तो ऊँची मुद्रास्फीति की दर को बर्दास्त करना होगा और यदि मुद्रास्फीति की दर को कम करना चाहते हैं तो अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी की ऊँची दर को सहना होगा।
मुद्रास्फीति का विभिन्न वर्गों पर प्रभाव
स्थिर आय वर्ग पर प्रभाव
कीमत स्तर में वृद्धि के कारण स्थिर आय वाले लोग पहले की अपेक्षा कम मात्रा में वस्तुओं एक सेवाओं की खरीदारी कर पाते हैं। ऐसे में उनका जीवन स्तर निम्न हो जाता है। जैसे- वेतन भोगी कर्मचारी, मजदूर, असंगठित क्षेत्र में कार्यरत कर्मचारी मुद्रास्फीति से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।
असमानता में वृद्धि
मुद्रास्फीति आय तथा संपत्ति के वितरण में असमानता को बड़ा देती है पूंजीपति संपत्ति एवं पूंजी का एकत्रीकरण करते हैं, जबकि श्रमिक वर्गको वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने की अपनी क्षमता में कटौती का सामना करना पड़ता है। इससे उसकी बचत करने की क्षमता घट जाती है।
बचत एवं निवेश में कमी
मुद्रास्फीति के कारण लोगों की वास्तविक आय में कमी होती है, जिससे उपभोग को पूरा करने के बाद आय का बहुत कम भाग निवेश के लिए बचता है। मुद्रा के मूल्य में तेज़ गिरावट बचत को हतोत्साहित करती है।
भुगतान संतुलन पर प्रभाव
मुद्रास्फीति के कारण आयात की तुलना में निर्यात महंगा हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप भारत तथा उसके व्यापार भागीदार देशों के बीच उच्च मुद्रास्फीतिक अंतर के कारण निर्यात करने की शक्ति कम हो जाती है। निर्यात की कमी और आयात के अधिक होने से व्यापार शेष और भुगतान शेष प्रतिकूल हो जाता है।
विदेशी विनमय दर में कमी
मुद्रास्फीति के कारण अर्थव्यवस्था में मुद्रा का अवमूल्यन होता है अर्थात विदेशी विनिमय दर में कमी आती है। भारत में ऊँची मुद्रास्फीति के कारण भारतीय वस्तुओं के मूल्य में भारत के साथ व्यापर में भागीदार देशों की तुलना में तेज़ी से वृद्धि होती है। इससे वस्तुओं का निर्यात गिर जाता है। इसलिए रूपये की विदेशी मांग कम होगी, फलस्वरूप विदेशी विनिमय दर में कमी होगी।
आर्थिक संवृद्धि में बाधक
उच्च मुद्रास्फीति तीव्र आर्थिक संवृद्धि की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करती है, क्यों कि इसकी वजह से वस्तुओं और सेवाओं की उत्पादन लागत बढ़ जाती है। लोगों की क्रय क्षमता में कमी से मांग में कमी आती है। जिससे आर्थिक क्रियाएं कम होती जाती हैं।
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर प्रभाव
उच्च मुद्रास्फीति से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रवाह कम हो जाता हैं। क्यों कि उच्च मुद्रास्फीति के कारण आयात लागत में वृद्धि हो जाती है। मुद्रास्फीति के कारण भारतीय बाजार में विदेशी मुद्रा की क्रय शक्ति में भी कमी हो जाती है। इस प्रकार मुद्रास्फीति से विदेशी निवेश पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
भारत में ऊँची मुद्रास्फीति के कारण
- जनसँख्या वृद्धि
जनसँख्या वृद्धि के कारण उपभोग में लगातार वृद्धि हो रही है। यह मांग और आपूर्ति के संतुलन के लिए चुनौती है। जनसँख्या वृद्धि की वजह से मांग प्रेरित स्फीति का जन्म होता है।
- शहरीकरण
शहरीकरण के कारण प्रवासी क्षेत्रों की दिखावी प्रवृत्ति के कारण महँगी वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है।
- आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी
ऐसा देखा जाता है कि बड़े किसान और व्यापारी अनाज की जमाखोरी करते हैं जिससे बाजार में कमी के कारण कीमतों में वृद्धि हो जाती है। जमाखोरी केवल अनाज की ही नहीं होती बल्कि तेल, मसाले, मशीन आदि सब भी जमाखोरी में शामिल किया जाता है।
- अनियमित खाद्य आपूर्ति
बाढ़, सूखा जैसी आपदाओं के कारण खाद्य आपूर्ति अनियमित हो जाती है। जिसकी वजह से पूर्ति आधारित स्फीति पैदा होती है।
इनके अलावा सरकारी और लागत आधारित कारण भी महंगाई के लिए जिम्मेदार होते हैं। इस आर्टिकल के माध्यम से मुद्रास्फीति को विस्तार में जानने की कोशिश की है। मुद्रास्फीति क्या है?(Inflation kya hai) इस विषय पर कोई सवाल है तो कमेंट में आप लिख सकते हैं।