चारधाम(Chardham in Hindi) यात्रा:
दुनिया में अधिकांशतः लोग प्रार्थना में विश्वास रखते हैं। किन्तु वह मुश्किल से ही उसके पीछे के विश्वास, कहानियों और उनके पीछे की पौराणिक कथाओं को जानते हैं। भारत में अधिकतर जनसँख्या हिन्दू धर्म में विश्वास रखती है एवं हिन्दू धर्म कोई अकेला एक धर्म नहीं है बल्कि हिन्दू धर्म से निकलकर कई अन्य धर्म भी बने हैं। जैसे- जैन, बौद्ध, सिक्ख। इन धर्मों की मान्यताये अलग हैं किन्तु बड़े परिपेक्ष में अगर देखा जाये तो यह हिन्दू धर्म के अंतर्गत ही शामिल किये जाते हैं। हिन्दू धर्म में मंदिरों का हमेशा ही अपना खास स्थान रहा है ऐसा इसलिए क्यों कि ये स्थान ज्ञान, ध्यान, और आत्मीय शुद्धि के स्थान समझे जाते हैं।
मंदिर(Temple) शब्द की उत्पत्ति इंग्लिश लैटिन शब्द ‘टेम्पलम(Templum)’ से होती है। जिसका मतलब धार्मिक या आध्यात्मिक अनुष्ठानों एवं प्रार्थना और बलिदान के लिए रिवर्स संरचना से होता है।
चारधाम(Chardham in Hindi) यात्रा से तात्पर्य चार धार्मिक स्थलों से है जो हिन्दू परम्पराओं के अनुसार अत्यंत महत्वपूर्ण समझे जाते हैं। बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, द्वारिका, रामेश्वरम।
भारत में हिन्दू धर्म के प्रमुख चार धाम हैं। यह चारों धार्मिक स्थल भारत के चार अलग-अलग बिंदुओं पर स्थित हैं। जैसे- बद्रीनाथ भारत के उत्तर में, जगन्नाथ मंदिर भारत के पूर्व में, द्वारिका भारत के पश्चिमी छोर पर हैं तथा रामेश्वरम दक्षिण में स्थित है।
ऐसा माना जाता है कि ये चारों धाम भगवान विष्णु द्वारा पसंद किये जाते हैं। इन चार धामों के पीछे कथा है कि भगवान विष्णु रामेश्वरम में स्नान करते हैं। जगन्नाथपुरी में भोजन, बद्रीनाथ में ध्यान और द्वारिका में आराम करते हैं। इसीलिए इसे चारधाम यात्रा कहा जाता है।
इन चारों धामों को शंकराचार्य द्वारा 8 वीं शताब्दी में स्थापित किया गया था।
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जगन्नाथ मंदिर
जगन्नाथ मंदिर उड़ीशा के पुरी में स्थित है। यह एक तटीय प्रदेश है जो हिन्दू धर्म में एक धार्मिक स्थल के रूप में प्रख्यात है। यह मंदिर भगवन जगन्नाथ को समर्पित है जो भगवान् विष्णु का ही एक रूप हैं। इस मंदिर के लिए भक्तों का विश्वास है कि यह मंदिर मानव सभ्यता जितना ही पुराना है। भगवन जगन्नाथ का इतिहास ऋगवेद के समय तक जाता है। इस मंदिर में 3 भगवानों की प्रतिमाएं हैं। यहां मुख्य रूप से चयनित नीम और दरू के पौधों से हरसाल जगन्नाथ, बालाभद्रा और सुभद्रा की मूर्तियां बनायी जाती हैं। ये तीनो मूर्तियां मंदिर के गर्भ गृह में रत्ना वेदी पर एक साथ स्थापित रहती हैं।
यहाँ रोजाना भगवान के लिए छप्पनभोग लगाया जाता है। जिसे महाप्रसाद कहा जाता है। यह भोग पहले भगवान जगन्नाथ को दिया जाता है फिर माँ बिमला को।
यह महाप्रसाद दो प्रकार का होता है। संकुडी महाप्रसाद और शुखिला महाप्रसाद। ये दोनों महाप्रसाद मंदिर के किचन में ही तैयार किये जाते हैं। इस किचन में 34 कमरे हैं और 250 भट्टियां हैं और लगभग 600 हलवाई तथा 400 लोग भोजन परोसने के लिए कार्य करते हैं।
यहाँ सालाना एक रथ यात्रा भी निकली जाती है जो कि एक त्यौहार की तरह होती है। इस रथ यात्रा में तीनों मूर्तियों को जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा मंदिर तक यात्रा करवाई जाती है। इस कार्यक्रम के लिए बेहद मजबूत और विशालकाय रथ तैयार किये जाते हैं। भगवान जगन्नाथ के रथ का नाम नंदीघोष होता है जिसमें 18 पहिये लगे होते हैं तथा लगभग 45.6 फ़ीट इसकी ऊंचाई होती है।
भगवन जगन्नाथ के रथ के साथ में भगवान बलराम का रथ तलाध्वजा होता है जिसकी 45 फ़ीट ऊंचाई तथा इसमें 16 पहिये लगे होते हैं। इसीप्रकार से सुभद्रा के रथ का नाम देवदलना है जो लगभग 44.6 फ़ीट ऊंचाई का होता है।
रामेश्वरम मंदिर
अपने अद्भुत स्थापत्य के लिए मशहूर यह मंदिर तमिलनाडु में स्थित है। रामानाथ स्वामी के नाम से प्रख्यात मंदिर भगवान शिव के लिए समर्पित है। मान्यता के अनुसार भगवान राम ने लंका के राजा रावण पर आक्रमण करने से पहले बनाया था। यह मंदिर चार धामों में से तो एक है ही, बल्कि यह 12 ज्योतिर्लिंगों में से भी एक ज्योतिर्लिंग माना जाता है।
यहाँ के शिवलिंग को भगवान राम ने स्थापित किया था किन्तु आगे कई राजाओं ने यहाँ निर्माण कार्य कराया है। यह मंदिर शिल्पकला और मंदिर स्थापत्य के लिए अद्भुत नमूना है। इस मंदिर का प्रवेश द्वार 40 फीट ऊँचा है। मंदिर के अंदर सैकड़ों स्तम्भ है, जिनपर बेलबूटे की भिन्न-भिन्न कारीगरी की गयी है।
मंदिर के स्थापत्य के अलावा यहाँ की खास बात है कि इस जगह 22 पवित्र कुएं(holy wells) हैं। जो पवित्र जल से भरे हुए हैं और मनुष्य यहाँ अपने पापों का प्रायश्चित कर सकता है। यहाँ भक्तगण भगवान राम और भगवान शिव की पूजा करने के लिए इकठ्ठा होते हैं। महाशिवरात्रि यहाँ बड़ी धूमधाम से मनायी जाती है। इस मंदिर में सबसे पहले भगवान शिव की पूजा होती है फिर उसके बाद राम की पूजा की जाती है।
द्वारिका मंदिर
गोमती क्रीक में स्थित द्वारिका के मंदिर को जगत मंदिर या त्रिलोक सुंदर भी कहा जाता है। माना जाता है कि इस मंदिर को भगवान कृष्ण के पड़-पोते वज्रनाभ ने 2500 साल पहले बनवाया था। इस मंदिर का 156 फ़ीट लम्बे कपङे का झंडा 10 किलोमीटर दूर से ही दिखाई देने लगता है। गोमती नदी के किनारे इस मंदिर की 56 लम्बी सीढ़ियां के कारण बढ़ता हुआ प्रतीत होता है। यह मंदिर नरम चूना पत्थर से बनाया गया है।
यहाँ भक्त स्वर्ग द्वार से प्रवेश और मोक्ष द्वार से बाहर निकलते हैं। द्वारिकाधीश मंदिर का निचला भाग 16 वीं शताब्दी में बनाया गया था तथा और कई छोटे उभारनुमा टॉवरों को 19 वीं शताब्दी में बनाया गया था। मंदिर का मुख्य हिस्सा 5 मंजिला है जो 100 फ़ीट तक की ऊंचाई तक जाता है। इस मंदिर की दीवारों और खम्भों पर उत्कृष मूर्तियां बनी हुई हैं। यह मंदिर मुख्यरूप से द्वारिकाधीश कहलाता है। भगवान कृष्ण का दूसरा नाम द्वारिकाधीश है।
यहाँ जन्माष्टमी त्यौहार बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है और गरबा व कृष्ण रास लीलाओं के साथ मनाया जाता है।
बद्रीनाथ मंदिर
बद्रीनाथ मंदिर उत्तराखंड में स्थित है। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार यह बताया जाता है कि यहाँ बद्री पेड़ के नीचे श्री कृष्ण ने 1000 सालों तक तपस्या की थी। ताकि मानवता का उद्धार हो सके और तभी से यह जगह गुप्त मानी जाती है।
इसके बाद यहाँ बद्रीनाथ की मुद्रा में एक मंदिर स्थापित किया गया। यहाँ भक्तों के लिए प्राकृतिक और आध्यात्मिक शांति दोनों मौजूद है। उत्तराखंड के चमौली जिले में स्थित नर नारायण मंदिर के एकदम मध्य में स्थित है। इस मंदिर के तीन मुख्य स्थान है- सभा मंडप, गर्भ गृह और दर्शन मंडप। बद्रीनाथ टेम्पल के अलावा यहाँ यात्रियों के लिए तप्त कुंड, सूर्य कुंड और पंच बद्री जैसे स्थान हैं। यहाँ भगवान विष्णु बद्री नारायण के रूप में पूजे जाते हैं। नर नारायण मदिर में मौजूद 1 मीटर ऊँची भगवान विष्णु की एक मूर्ति को सालीग्राम कहा जाता है। सालीग्राम का घरों की पूजा में अत्यंत महत्व माना जाता है।
त्योहारों में यहां माता मूर्ति का मेला लगाया जाता है। इस दौरान बद्रीनाथ की माता की पूजा की जाती है। कहा जाता है कि उन्होंने धरती पर रहने वाले प्राणियों के जीवन के लिए गंगा को 12 भागों में बाँट दिया था और जहाँ से गंगा बही उसे बद्रीनाथ कहा गया। चूँकि यह मंदिर उत्तरखंड के ऊपरी हुस्से पर स्थित है इसलिए सर्दियों के समय बर्फ के कारण यह मंदिर बंद रहता है। यहाँ अखंड ज्योति हमेशा जलती रहती है और मंदिर के कपाट बंद होते समय, ज्योति को 6 महीने तक जलते रहने के लिए इसमें घी भरा जाता है।
इस मंदिर को अप्रैल-मई के बीच अक्षय तृतीया पर पुनः खोला जाता है।