भारत में कई धर्मों ने जन्म लिया। उन धर्मों में, छठी शताब्दी ईशा पूर्व भारत में जो धर्म तीव्र विकास के साथ आगे आये। उनमें बौद्ध धर्म और जैन धर्म शामिल हैं। जैन धर्म की शुरुआत महावीर के जन्म से पहले से ही मानी जाती है किन्तु इसे व्यवस्थित रूप महावीर स्वामी ने दिया। महावीर के विचार(bhagwan mahavir ke vichar) और उनकी शिक्षा आज के आधुनिक समाज के लिए और भी जरुरी हो जाती हैं।
अभी तक उपलब्ध जानकारी के अनुसार महावीर से पहले जैन धर्म के 23 तार्थकर रह चुके थे और महावीर 24 वें तथा अंतिम तीर्थकर थे। महावीर से पहले 23 वें तीर्थकर पार्श्वनाथ को माना जाता है। ये जैन धर्म के प्रचार प्रसार में सक्रिय थे। महावीर ने पार्श्वनाथ की शिक्षाओं को आधार बनाकर जैन धर्म में आगे की राह को तैयार किया। आज जैन धर्म को को जिस रूप में माना जाता है उसकी धारणाओं का मूल महावीर द्वारा ही प्रतिपादित किया गया है।
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महावीर के विचार(bhagwan mahavir ke vichar)
स्यादवाद
महावीर का सबसे महत्वपूर्ण योगदान स्यादवाद का सिद्धांत हैं। इस सिद्धांत का सीधा सा अर्थ यह है कि हमारा ज्ञान सीमित और सापेक्ष होता है तथा हमें इस बात को ईमानदारी से स्वीकार करना चाहिए।
‘स्यादवाद’ मूलतः ‘स्यात’ शब्द से बना है। जिसका अर्थ होता है- संभवतः। किन्तु महावीर के द्वारा इस शब्द का प्रयोग सापेक्षता के रूप में किया गया है।
जैन धर्म में साम्यवाद को समझने के लिए एक कथा का जिक्र किया गया जाता है जिसे अन्य दार्शनिकों ने भी अपने अपने तरीके से इस्तेमाल किया। कहानी ऐसी है कि एक बार एक हाथी के सामने 4 अंधे आ गए। एक ने हाथी का पैर छुआ तो उसे खम्बा बता दिया दूसरे ने सूंड को पकड़ा तो अजगर बता दिया उसी प्रकार अन्य ने भी अपनी समझ के अनुसार राय व्यक्त कर दी।
इस कहानी के द्वारा यह बताया गया कि साधारण मनुष्य वास्तविकता से बहुत दूर है। किन्तु अपने ज्ञान की पूर्णता का दावा ठोकने के लालच में अपने सिमित ज्ञान को ही निरपेक्ष ज्ञान की तरह प्रदर्शित करता है। महावीर कहते हैं कि व्यक्ति को अपने ज्ञान की सीमाओं को पहचानना चाहिए और पूरी ईमानदारी के साथ अपने कथनो में स्वीकार करना चाहिए।
स्यादवाद को अगर वर्तमान परिपेक्ष में देखें तो यह एक जरुरी विचार है। आज दुनिया में आतंकवाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता आदि झगड़े चुनौतियों के रूप में मौजूद हैं। इन झगड़ों के मूल में एक बात स्पष्ट रूप से दिखायी देती है कि कोई व्यक्ति, देश या संस्था अपने दृष्टिकोण से पीछे को हटने को तैयार नहीं होते हैं। सभी को यही लगता है जैसे अंतिम सत्य उन्ही को ज्ञात हो। दूसरे के पक्ष को सुनाने और समझने का धैर्य किसी के पास नहीं है।
स्यादवाद को अगर स्वीकार किया जाये तो हमारा दृष्टिकोण बेहतर हो सकता है। क्यों न हम यह जान लेते कि न तो हम पूरी तरह सही हैं और न ही दूसरे पूरी तरह गलत। अगर दूसरे के विचारों को स्वीकार कर लिया जाता है तो दो विपक्षी समूहों के बीच सार्थक संवाद पैदा हो सकता है। अगर विभिन्न धर्मो के बीच ऐसा संवाद होने लगे तो धार्मिक सहिष्णुता और सर्वधर्म समभाव जैसे शब्द असल में सार्थक सिद्ध होंगे।
अनेकान्तवाद
यह महावीर का दूसरा विचार है जो स्यादवाद से जुड़ा हुआ है। अनेकान्तवाद वाद का अर्थ है- दुनिया में अनेकों वस्तु हैं और प्रत्येक वस्तु की अनेक विशेषताएं हैं। अगर हम चाहतें है कि हम किसी एक वस्तु को पूरी तरह समझ लें तो हमें एक साथ शेष सभी वस्तुओं को भी समझना होगा। क्यों कि हर चीज, हर दूसरी चीज से किसी न किसी स्तर पर सम्बंधित है। इसी लिए जेन धर्म में कहा गया है कि जो व्यक्ति किसी एक वस्तु को सम्पूर्ण रूप से जान लेता है वह समस्त ब्रह्मण्ड को जान लेता है। सामान्य व्यक्ति के लिए यह असंभव माना जाता है।
जिस विचार को महावीर के द्वारा अनेकांतवाद कहा है, वर्त्तमान में उसी विचार को हम दूसरे नामों से जानते हैं। उनमें से एक नाम है ‘पारिस्थितिकी दर्शन’। जगत की हर वस्तु, प्रत्येक किसी दूसरी वस्तु के साथ सम्बंधित है। अगर हम किसी एक वस्तु को नष्ट करतें हैं तो किसी न किसी रूप में दूसरी वस्तु पर भबि प्रभाव पड़ना तय है। इस विचार को सही मान लिया जाये तो दुनिया की अधिकांश समस्याएं सुलझ सकती हैं। इसी प्रकार अगर दो धर्मों के बीच, मनुष्य और प्रकृति के बीच यह भाव पैदा हो जाये तो निश्चित मनुष्य बेहतर जीवन जी सकता है।
महावीर द्वारा अपने अनुयायियों को पंचव्रत का पालन करने की शिक्षा दी जिसमें पांच व्रत हैं- अहिंसा, अपरिग्रह, सत्य, अस्तेय और ब्रह्मचर्य। इनमें से अधिकांश नैतिक मूल्य वर्त्तमान समाज के लिए महत्वपूर्ण हैं।
अहिंसा
‘अहिंसा’ ही वह नैतिक विचार है जिसके लिए महावीर स्वामी दुनिया भर में जाने जाते हैं। अहिंसा की बात गौतमबुद्ध ने भी की थी किन्तु अहिंसा को लेकर जैसी गतिशीलता महावीर के विचारों में है, वह कहीं और दिखायी नहीं पड़ती। बुद्ध आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते किन्तु महावीर को आत्मा के अस्तित्व में गहरी आस्था थी। उन्होंने हाथी और चींटी की आत्माओं की तुलना के माध्यम से प्राणी-मात्र की समानता का विचार प्रस्तुत किया है। अहिंसा को लेकर महावीर इतने प्रतिबद्ध थे कि उन्होंने जैन धर्म के अनुयायियों को हर संभव स्तर पर जाकर जीव-जंतुओं की रक्षा करने की हिदायत दी।
सत्य
महावीर स्वामी ने हमेशा सत्य पर चलने और उसके सानिध्य में रहने की बात कही। उनका मानना था कि सत्य के जरिये कोई बुद्धिमान व्यक्ति मृत्यु को भी जीत सकता है। बुरे से बुरे समय में व्यक्ति को सत्य का साथ नहीं छोड़ना चाहिए। आज के समाज में यह और भी आवश्यक हो गया है। जब खुद को सिद्ध करने के लिए सत्य को साधन बनाया जाये।
अपरिग्रह
अपरिग्रह का मूल्य समाजवाद के इस विचार से जुड़ता है कि समाज में आर्थिक संसाधनों का वितरण समतामूलक तरीके से होना चाहिए। अपरिग्रह का सरलतम अर्थ – एकत्रित न करना है, इससे तात्पर्य उतनी ही सम्पदा इकठ्ठा करने से जितनी की व्यक्ति को आवश्यकता हो। इस बात के पीछे तर्क है कि जब किसी व्यक्ति के पास में जरुरत से ज्यादा सम्पदा इकठ्ठा होती है तो उसी अनुपात में कुछ लोग सम्पदाहीन भी हो जाते हैं।
अस्तेय
अस्तेय का विचार यह है कि हमे दूसरे की सम्पदा नहीं चुरानी चाहिए। इसका मूल अर्थ दूसरे का हक़ न मारना है। अगर यह विचार सही तरीके से स्थापित हो जाये तो कोई उद्यमी अपने कर्मचारी का एक नहीं मरेगा, कोई अमीर गरीब का नुकसान नहीं करेगा। एक प्रकार से अस्तेय का विचार समाजवादी मूल्यों से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है।
ब्रह्मचर्य
यह विचार आज के समाज के उपभोक्तावादी चरित्र के लिए आवश्यक है। ब्रह्मचर्य का अर्थ सिर्फ यौन इच्छाओं पर नियंत्रण रखना नहीं है। इसका सही अर्थ है अपनी समस्त वासनाओं को नियंत्रित करना है। क्यों कि प्रत्येक वासना की संतुष्टि के लिए प्राकृतिक या सामाजिक संसाधनों की जरुरत पड़ती है। अगर सभी व्यक्तियों के अंदर इच्छाओं का अनियंत्रित वेग आ जाये तो प्राकृतिक संसाधन तो नष्ट हो जायेंगे। जैसा कि आज के समाज में हो ही रहा है।
महावीर के द्वारा सद्गुणों के विकास पर अत्यधिक बल दिया गया। उन्होंने अपने अनुयायियों के लिए आचरण सहिंता बताई है, उसमें कष्टों को सहने की ताकत और अनुशासित जीवन का अत्यधिक मूल्य है। महावीर स्वामी का जीवन इस बात का प्रमाण रहा है कठोर साधना के बिना उच्च नैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति संभव नहीं है।
जैन धर्म के बहुत अधिक न फैलाने के कारण
महावीर के दर्शन में सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह अत्यंत कठोर मार्ग प्रस्तावित करते हैं। साधुओं के लिए तो यह मार्ग और भी कठिन है जिसे महाव्रत कहते हैं। गृहस्थों के लिए अनुशासन में थोड़ी ढील है जिसे अणुव्रत कहा जाता है। किन्तु दोनों ही मार्गो पर पूरी तरह पालन करना कठिन कार्य है।
जैन धर्म को मानने वालों की संख्या न तो भारत में बहुत अधिक है और न ही विश्व के अन्य देशों में। महात्मा गाँधी ने अहिंसा का जो आचरण खुद में समाहित कर सत्याग्रह चलाये, वह महावीर से ही हासिल किया इस बात को गाँधी जी ने खुद स्वीकार किया था। महावीर के विचार(bhagwan mahavir ke vichar) को जानकर और अपनाकर संतुलित व्यक्ति के रूप में समाज में योगदान दिया जा सकता है।