मूल अधिकारों का भाग अनुच्छेद 21(Article 21 in Hindi) से तात्पर्य जीवन के अधिकार से है। जिसे अन्य शब्दों में प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षक कहा जाता है। भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 में यह कहा गया है कि किसी व्यक्ति को उसके जीवन जीने के अधिकार से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जा सकता है अन्यथा नहीं।
इस आर्टिकल को इंग्लैंड के मैग्ना कार्टा में इस प्रकार से कहा गया है कि किसी व्यक्ति को देश की विधि के अनुसार ही गिरफ्तार या निर्वासित किया जायेगा।
इसका अर्थ यह हुआ कि कार्यपालिका या सरकार किसी भी नागरिक की स्वतंत्रता में तभी हस्तक्षेप करेगी, जब उसके द्वारा देश में स्थापित किसी विधि का उल्लंघन किया गया हो।
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अनुच्छेद 21(Article 21 in Hindi) पर बहस
न्यायपालिका के द्वारा समय समय पर जीवन के अधिकार से जुड़े मुद्दों पर आर्टिकल 21 की व्याख्या की जाती रही है। 1950 के गोपालन वाद में न्यायपालिका के द्वारा विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का समर्थन करते हुए कहा कि विधि के निर्माण का अधिकार विधायिका का है। इसलिए न्यायपालिका यह नहीं बता सकती कि विधि अतार्किक है बल्कि न्यायपालिका केवल विधि की व्याख्या करेगी और यह जाँच करेगी कि व्यक्ति को विधि के उल्लंघन के कारण दण्डित किया गया है या नहीं।
न्यायपालिका के द्वारा आर्टिकल 19, 21 को अलग अलग माना गया। गोपालन वाद में न्यायपालिका के द्वारा जीवन के अधिकार की संकीर्ण व्याख्या की गयी।
मेनिका गाँधी वाद-1978
मेनिका गाँधी वाद में न्यायपालिका की 7 जजों की पीठ ने निर्णय लिया और 1950 के गोपालन वाद के निर्णय को बदलते हुए कहा कि विधायिका द्वारा निर्मित विधि तार्किक एवं औचित्यपूर्ण होनी चाहिए, न कि मनमानी और भेदभाव पूर्ण। न्यायपालिका के द्वारा इस वाद में विधि की उचित प्रक्रिया की संकल्पना का प्रयोग किया गया। इस वाद में प्राकृतिक न्याय के सिद्धान को भी पारित किया गया साथ ही इस वाद में विधि की उचित प्रक्रिया का प्रतिपादन किया गया जो अमेरिकी विधि में वर्णित है।
उच्चतम न्यायलय के द्वारा कहा गया कि जीवन के अधिकार का अभिप्राय शारीरिक प्रतारणा से अभावमात्र ही नहीं है। बल्कि यह गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार है।
न्यायपालिका ने जीवन के अधिकार की व्याख्या करते हुए कहा कि जीवन का अधिकार(article-21) , स्वतंत्रता के अधिकार(article-19) के बिना आंशिक और अधूरा है। इसलिए जीवन के अधिकार में आर्टिकल 19, 21 दोनों शामिल हैं।
जीवन के अधिकार में शामिल अधिकार
मेनिका गाँधी वाद से शुरू करके उच्चतम न्यायालय ने जीवन के अधिकार का व्यापक विस्तार कर दिया और वर्ष 2015 में मृत्युदंड प्राप्त व्यक्तियों अपराधियों के दण्ड के क्रियान्वयन में अत्यधिक विलम्भ को देखते हुए। 10 वर्षों से ज्यादा की मृत्युदंड की सजा को आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया और न्यायालय ने कहा कि मृत्युदंड के क्रियान्वयन में देरी व्यक्ति के जीवन के अधिकार का उल्लंघन है।
2016 में मानहानि के मुद्दे पर न्यायपालिका के निर्णय देते हुए कहा कि जीवन के अधिकार में सम्मान का अधिकार भी शामिल है।
1996 में विशाखा वाद के ऐतिहासिक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि योन शोषण जीवन के अधिकार का उल्लंघन है।
जीवन के अधिकार में शामिल नहीं
जीवन के अधिकार में मृत्यु का अधिकार शामिल नहीं है। किसी भी व्यक्ति को इच्छा मृत्यु की आजादी नहीं है।
जीवन के अधिकार में शिक्षा का अधिकार
86 वें संविधान संशोधन 2002 के द्वारा, राज्य और केंद्र 6 से 14 वर्ष के बच्चों को अनिवार्य एवं निशुल्क प्राथमिक शिक्षा प्रदान करेंगे। मूल संविधान में शिक्षा के अधिकार को निदेशक तत्वों की सूची में शामिल किया गया था परन्तु अब यह मौलिक अधिकारों का भाग है। राज्य का यह दायित्व है कि वह प्रत्येक बच्चे को शिक्षा उपलब्ध कराये। वर्ष 2009 में निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम पारित किया गया और यह वास्तविक अधिकार बन गया।
जीवन के अधिकार में विस्तार
1980 से जनहित याचिका के प्रचलन से अनुच्छेद 21(Article 21 in Hindi) के अधिकारों की व्याख्या अत्यधिक विस्तृत हो गयी और न्यायपालिका के द्वारा निम्नलिखित बातों को जीवन के अधिकार में शामिल किया गया।
- न्यूनतम आजीविका
- स्वास्थ्य
- प्राथमिक शिक्षा
- त्वरित सुनवाई
- महिला उत्पीङन
- भोजन एवं आश्रय
जीवन के अधिकार(Article 21 in Hindi) को न्यायालय समय समय पर परिभाषित करती रहती है। अगर किसी व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन हुआ है तो वह व्यक्ति आर्टिकल 32 और 226 के तहत सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है।